ऐसा लगता है कि बीजेपी ने 400 सीटों का जो लक्ष्य रखा है, वह 1984 में कांग्रेस के प्रदर्शन के आधार पर तय किया गया है. इंदिरा गांधी की हत्या के बाद हुए लोकसभा चुनाव में कांग्रेस ने 414 सीटें जीती थीं. उस समय देश में मतदाताओं की संख्या करीब 38 करोड़ थी. इनमें से 24 करोड़ लोगों ने वोट किया. उनमें से 50 फीसदी यानी 12 करोड़ लोगों ने कांग्रेस को वोट दिया. स्वतंत्र भारत के इतिहास में किसी अन्य पार्टी ने ऐसी उपलब्धि हासिल नहीं की है.
अगर बीजेपी को लोकसभा में 400 सीटें जीतनी हैं तो उसे 50 फीसदी वोट हासिल करने होंगे. 2009 में बीजेपी ने 18.8 फीसदी वोटों के साथ 116 सीटें जीतीं, 2014 में 31.34 फीसदी वोटों के साथ 282 सीटें जीतीं. 2019 में 37.7 फीसदी के साथ 303 सीटें जीतीं. 2019 में एनडीए ने 38.4 फीसदी वोटों के साथ 352 सीटें जीती हैं. अब अगर बीजेपी को 400 सीटें जीतनी हैं तो उसे 50 फीसदी वोट हासिल करने होंगे. ऐसे में बीजेपी को 13 फीसदी ज्यादा वोट मिलना है या फिर एनडीए को 12 फीसदी ज्यादा वोट मिलते दिख रहे हैं.
पिछले लोकसभा चुनाव में बीजेपी 72 सीटों पर दूसरे नंबर पर थी. 31 सीटों पर पार्टी के उम्मीदवार तीसरे स्थान पर रहे. इन 72 सीटों में से 40 सीटें ऐसी हैं जहां 3 से 4 फीसदी वोटों का अंतर बीजेपी को बढ़त दिला सकता है. अगर ये सीटें बीजेपी के पास जाती हैं और बीजेपी पहले जीती हुई सीटें बरकरार रखती है तो बीजेपी के सांसदों की संख्या 350 के करीब पहुंच सकती है.
पिछले लोकसभा चुनाव में बीजेपी के सहयोगियों ने 49 सीटें जीती थीं. अगर बीजेपी के सहयोगी दल अपना पिछला प्रदर्शन दोहराते हैं तो एनडीए का आंकड़ा चार सौ के पार जा सकता है. इसीलिए बीजेपी ने बिछड़े दोस्तों को वापस लाने की कोशिशें शुरू कर दी हैं. जनाधार वाले नेताओं को पार्टी में शामिल करने की कोशिश की जा रही है.
पिछले महीने राज्य में इस तरह के घटनाक्रम देखने को मिले हैं. पूर्व मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण कांग्रेस छोड़कर बीजेपी में शामिल हो गए. पूर्व केंद्रीय मंत्री मिलिंद देवर ने हाथ छोड़कर शिवसेना का दामन थाम लिया है. दोनों को राज्यसभा के लिए मनोनीत किया गया। भाजपा की ओर से ऐसे नेताओं को अपने पाले में लाने की कोशिश की जा रही है, जिनके पास जनाधार है, जो अपने विधानसभा क्षेत्रों के साथ-साथ आसपास के विधानसभा क्षेत्रों को भी प्रभावित कर सकते हैं।